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- Navneet Gurjar’s Column The Sky Of Hopes And The Threads Of Attachment
5 घंटे पहले
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नवनीत गुर्जर
कहीं एक सोनम ने पति की हत्या करवा दी। कहीं इस भर गर्मी में लोग नहाते हुए डूब गए- सेल्फी लेते हुए, कोई मस्ती करते हुए या एक-दूसरे को बचाते हुए।
पीछे छोड़ गए परिजन के लिए दु:खों का पहाड़ या त्रास। यह दु:ख देखकर कभी मन पूछता है कि- ये धरती अति सुंदर किताब है। चांद-सूरज की जिल्द वाली।
पर हे! ईश्वर, ये दु:ख, भूख, सहम और गुलामी, ये सब तेरी इबारत हैं या प्रूफ की गलतियां? दूसरी तरफ मई और जून की गर्मी में जब कहीं-कहीं भारी बारिश हुई तो सड़कों, गलियों की हकीकत सामने आ गई।
…और ये हर बार होता है। हर बारिश में। वर्षों से। कोई सुध नहीं लेता। कोई कुछ करता-धरता नहीं। लोग कह-कहकर थक गए। उनकी अर्जियों को कीड़े चट कर गए, पर वे कभी किसी मंत्री या अफसर या बाबू के टेबल तक नहीं पहुंच सकीं। अमृता प्रीतम ने ठीक ही कहा है कि हमारे, हमारे-सबके शहर एक लम्बी बहस की तरह हैं।
सड़कें बेतुकी दलीलों की तरह। …और गलियां इस तरह, जैसे कोई एक बात को इधर घसीटे। कोई उधर। इस सब के बीच हर मकान किसी मुट्ठी की तरह भिंचा हुआ लगता है। दीवारें किचकिचाती-सी।
..और नालियां जैसे मुंह से झाग बहता है! साइकलों, स्कूटरों और कारों के पहिए गालियों की तरह गुजरते हैं और घंटियां, हार्न एक-दूसरे पर झपटते हुए भां-भां करते रहते हैं।
रात सिर पटकती हुई आती है और चली जाती है। पर नींद में भी ये बहस खत्म नहीं होती। इसीलिए, हां इसीलिए हमारे, हमारे-सबके शहर एक लम्बी बहस की तरह हो चले हैं।
पचास-पचास, सौ-सौ साल हो गए, लेकिन शहरों के हालात जस के तस हैं। कहने को बड़े-बड़े ओवर ब्रिज, पुल-पुलिया बना दिए गए हैं, लेकिन इनके नीचे सब कुछ वैसा ही कचरा फैला पड़ा है, जैसे सुंदर कालीन के नीचे गंदगी होती है।
कभी किसी उद्योगपति के कहने पर पुल की दिशा मोड़ दी गई तो कभी किसी नेता की कृपा से बेतुका ढांचा बना दिया गया। किसी पुल पर चढ़ सकते हैं तो उतर नहीं सकते।
किसी से उतरना इतना दूभर है कि उस पर कोई चढ़ना ही नहीं चाहता। विकास हर तरफ चीखें मार रहा है और परम्परा, संस्कृति, संस्कार किसी सफेद बिछौने की सलवटों की तरह किसी कोने में झिझके पड़े हैं।
सरकारों, राजनेताओें को चुनाव जीतने और उसकी कवायद करने के सिवाय कोई दूसरी फिक्र नहीं है। कह सकते हैं कि राजनीति घुप अंधेरे की तरह है।
उसका हाल वैसा ही है, जैसे कोई रात काली चील की तरह उड़ते हुए सूरज को ढूंढने निकली हो! जिस तरह रात को कभी सूरज नहीं मिल पाता, उसी तरह राजनीति का लोगों की भलाई से कोई संगम नहीं हो पाता।
एक मशहूर लेखक ने लिखा है कि राजनीति दरअसल, एक क्लासिक फिल्म की तरह होती है। इस फिल्म का हीरो बहुमुखी प्रतिभा का धनी होता है और समय-समय पर बदलता रहता है।
हीरोइन सत्ता की कुर्सी है, जो हमेशा एक जैसी रहती है। बदलती नहीं। विभिन्न क्षेत्रों, इलाकों और मंडलों के सदस्य इसके एक्स्ट्रा कलाकार होते हैं।
इस फिल्म के फाइनेंसर, गरीब, मजदूर और खेतिहर लोग होते हैं। ये फाइनेंस करते नहीं, इनसे करवाया जाता है।
या कह सकते हैं कि उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर किया जाता है। विभिन्न विधान मंडल इस फिल्म की इनडोर शूटिंग के स्थान हैं …और मीडिया आउटडोर शूटिंग का साधन। यह फिल्म किसी ने देखी नहीं है क्योंकि इस पर जगह-जगह सेंसर बोर्ड के एम्बार्गो लगे होते हैं।
जहां तक आम आदमी का सवाल है, उसे तो सहसा पता ही नहीं है कि उसकी जिंदगी जाने किसके लिए मोह की पूनी कातती फिर रही है? जबकि मोह के तार में न तो आशाओं के अम्बर को लपेटा जा सकता है… और न ही उम्मीदों के सूरज को बांधा जा सकता है।
चुनाव और उसकी कवायद के सिवा कोई फिक्र नहीं… विकास हर तरफ चीखें मार रहा है और परम्परा, संस्कृति, संस्कार किसी सफेद बिछौने की सलवटों की तरह किसी कोने में झिझके पड़े हैं। सरकारों, राजनेताओें को चुनाव जीतने और उसकी कवायद करने के सिवाय कोई दूसरी फिक्र नहीं है।