12 मिनट पहले
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नवनीत गुर्जर
हर तरफ बादल हैं। बारिश है। बाढ़ भी। पहाड़ों पर तबाही ज्यादा है। वे सरक रहे हैं। दरक रहे हैं। मैदानों में हमेशा की तरह कहीं भारी बारिश। कहीं बूंदा-बांदी। लेकिन बिहार जहां इन दिनों अमूमन बाढ़ होती है, फिलहाल सूखा है। गर्मी है। चुनावी गर्मी।
यहां चुनाव होने हैं अक्टूबर-नवम्बर में, लेकिन चुनावी गर्मी अभी से सिर चढ़कर बोल रही है। कभी विरोधी दलों के लोग, लालू यादव को चारा खाते दिखा रहे हैं। कहीं तेजस्वी और लालू, नीतीश कुमार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तंज कस रहे हैं। सवाल पर सवाल। जवाब पर जवाब। बाकायदा एक-दूसरे के खिलाफ चौराहों पर पोस्टर चिपकाए जा रहे हैं।
दरअसल, बिहार में चुनाव, मुद्दों और मसलों पर कम, जातीय गणित के हिसाब से ज्यादा जीते जाते हैं। बारिश के दिनों में वर्षों से आधे से ज्यादा बिहार पानी में डूबा रहता है। लोग सड़कों पर अपना डेरा बांधते हैं और चौमासा वहीं गुजारते हैं। कोई स्थायी इलाज नहीं। कोई पुख्ता उपाय नहीं। कोई रहने-खाने का इंतजाम नहीं। जातीयता हर बाढ़ और हर आफत पर भारी है। इस जातीय गणित ने पूरे राज्य का बंटाधार कर रखा है।
जातीय गणित भी कुछ इस तरह है कि भाजपा को वहां हराना है तो नीतीश कुमार और लालू यादव के राजद को साथ आना होता है। जहां तक राजद की बात है, बिहार में यादवों की संख्या या प्रतिशत काफी है, इसलिए लालू को हराना है तो भाजपा और नीतीश कुमार को साथ आना पड़ता है। चिराग पासवान इन सबके बीच में कहीं आते हैं।
हालांकि राज्य की राजनीति में उनकी पार्टी का कोई ज्यादा योगदान नहीं रहा क्योंकि वे केंद्र की राजनीति में ज्यादा भरोसा करते हैं। जितने सांसद लड़ाते हैं, अक्सर सब के सब जीत ही जाते हैं। यहां अक्टूबर-नवंबर में होने वाले चुनाव के नतीजों का अंदाजा लगाया जाए तो लोगों का कहना है कि अगर कोई अनहोनी या आसमानी सुल्तानी नहीं हुई, तो ये नतीजे भी हरियाणा या बहुत हद तक महाराष्ट्र के चुनाव नतीजों से ज्यादा अलग नहीं होंगे।
हरियाणा में भाजपा की एकतरफा जीत हुई थी जबकि महाराष्ट्र में मिली-जुली। महाराष्ट्र के नतीजे इस तरह आए थे कि भाजपा से उसके दोनों साथी यानी शिंदे सेना और अजित पवार किसी तरह की सौदेबाजी की सूरत में नहीं रहे थे। यही वजह है कि वहां फडणवीस सरकार मजे से चल रही है। दोनों सहयोगी दलों में से एक बगावत भी कर ले तो सरकार की सेहत पर कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है।
इधर उत्तर भारत में रह-रहकर बादल बरस रहे हैं। गलियां, सड़कें सुड़क-सुड़क कर रही हैं। वाहन चीखें मार रहे हैं। दिन उगता है तो लगता है जैसे सूरज शर्मीला चम्पा का फूल हो! उठने से पहले ही जैसे डूबने को होता है। सांझ से ही सन्नाटा छा जाता है।
बारिश की मंद-मंद फुहारें, जैसे पाला पड़ रहा हो! बूढ़ा आकाश शाम से ही ऊंघने लगता है। उसकी आंखों में नींद साफ देखी जा सकती है। कीचड़ और पानी के मिलन के बीच सड़कों पर पैदल चलते आदमी की तो पूछिए मत! वो सबको झेल रहा है। दोपहिया-चार पहिया वाहनों को भी और ऊपर से बरसते पानी को भी। सरकारें, प्रशासन और प्रशासनिक अफसर दुबके पड़े हैं। उन्हें किसी की पड़ी नहीं है। आम आदमी बेहाल है। अपनी पीड़ा किससे कहे? कहां जाए?
सरकार में, प्रशासन में, मंत्री, संतरी, अफसर, बाबू, किसी के पास कान हों तो सुने! युगों-युगों से आम आदमी के तो दो ही मजबूत आसरे रहे हैं। पैरों में रास्ता और सिर पर आसमां। बड़ी बर्दाश्त है इसके भीतर। कभी बड़ा बेखौफ होकर बोलता था। अब उसके मुंह में मूंग ओर दिए गए हैं। उससे बोलते नहीं बनता। सबकुछ भीतर दबाए फिरता है। इधर से उधर। उधर से इधर।
इस इधर-उधर में अक्सर भूल ही जाता है कि उसका सिरा आखिर कौन-सा है! ये आम आदमी जो वर्षों से सपने देख रहा था, उन्हें खुद ही धुलते हुए, बहते हुए देखने को विवश है। विवश है कि बड़े-बड़े वादे करके वोट ले जाने वाले लोग अचानक गायब हो जाते हैं और वे वादे वहीं गलियों में, टूटी-फूटी सड़कों पर पड़े कुचलते रहते हैं। सड़ते रहते हैं।
फिर भी वह अपने ही सपनों को, अपने ही पैरों तले कुचलते हुए, दबते हुए देखता रहता है। उसे आजादी है तो सिर्फ इतनी कि इन मची हुई सड़कों, गलियों में सकुचाते हुए चलता भर रहे। बस! इससे ज्यादा कुछ नहीं। कुछ भी नहीं।
बिहार का जातीय गणित बहुत उलझाने वाला है…

बिहार में जातीय गणित भी कुछ इस तरह है कि भाजपा को हराना है तो नीतीश और लालू को साथ आना होता है। और लालू को हराना है तो भाजपा और नीतीश को साथ आना पड़ता है। चिराग पासवान इन सबके बीच में कहीं आते हैं।