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Sunday, 27 July 2025
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Abhay Kumar Dubey’s column – You may not use Chinese products, but you must learn from them | अभय कुमार दुबे का कॉलम: चीन का सामान भले उपयोग ना करें, पर उससे सीखें जरूर

Abhay Kumar Dubey’s column – You may not use Chinese products, but you must learn from them | अभय कुमार दुबे का कॉलम: चीन का सामान भले उपयोग ना करें, पर उससे सीखें जरूर

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4 दिन पहले

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अभय कुमार दुबे, अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर

1962 के युद्ध में हुई पराजय की कड़वी यादें हमें आज भी बेचैन करती हैं। उसके बाद से भी कई बार अपनी विस्तारवादी हरकतों के जरिए चीन ने इस कड़वाहट को बढ़ाया है। हाल ही में हमसे हुए संघर्ष में जो हथियार पाकिस्तान ने इस्तेमाल किए थे, उनमें से 80% चीन से आए थे।

क्या यह बात ताज्जुब में नहीं डालती कि हमारी देशभक्ति और राष्ट्रवाद को इतनी ठेस लगाने के बावजूद आम भारतवासी पर चीनी माल न खरीदने की अपील का कोई उल्लेखनीय असर नहीं दिखाई पड़ता। यह विरोधाभास हमें चीन की लगातार बढ़ती हैसियत के कारणों पर गौर करने की तरफ ले जाता है। इन कारणों का ताल्लुक इतिहास से भी है।

जोसेफ नीढम नामक एक मशहूर विद्वान ने 1954 से 2008 के बीच में रची अपनी 27 खंडों की रचना साइंस एंड सिविलाइजेशन इन चाइना में दिखाया है कि ईसा-पूर्व पहली सदी से लेकर अगली 15 सदियों के बीच चीनी विज्ञान, प्रौद्योगिकी और सभ्यता पश्चिम से बहुत आगे थी। मानवीय जीवन की व्यावहारिक आवश्यकताओं की पूर्ति के मामले में भी चीन का मुकाबला इस दौर का पश्चिम नहीं कर सकता था। नीढम के अनुसार चीन की यह श्रेष्ठता उसकी साभ्यतिक-सामाजिक विशेषताओं का परिणाम थी।

16वीं सदी से अगर हम सीधे 20वीं और 21वीं सदी में छलांग लगाएं तो हमें दिखाई पड़़ता है कि चीन ने पिछले 75 साल में अपनी विशाल आबादी को सौ फीसदी शिक्षित करने के लिए बहुत बड़े पैमाने पर निवेश किया है। चीन की उच्च शिक्षा की गुणवत्ता इस समय पश्चिम की उच्च शिक्षा से कहीं भी उन्नीस नहीं है।

ज्ञान के अधिकतर क्षेत्रों में चीनी भाषा में लिखे शोध-आलेख न केवल संख्या में सबसे अधिक हैं, बल्कि सारी दुनिया में उन्हें सर्वाधिक उद्धृत किया जाता है। ऑस्ट्रेलियन स्ट्रैटेजिक पॉलिसी इंस्टीट्यूट के मुताबिक चीन 2019 से 2023 के बीच 64 प्रमुख तकनीकों में से 57 में अमेरिका से आगे निकल गया है।

चूंकि ट्रम्प ने अमेरिका में रिसर्च फंडिंग में कटौती कर दी है, और वहां गैर-अमेरिकी मूल के अनुसंधानकर्ताओं को नौकरियों से हटाया जा रहा है, इसलिए चीन बाकी में भी आगे निकल जाएगा। दुनिया में सबसे ज्यादा इंडस्ट्रीयल रोबोट चीन में इस्तेमाल किए जा रहे हैं। क्वांटम कंप्यूटिंग, जीन एडिटिंग और नई दवाएं खोजने में वह बहुत आगे है।

पिछले साल दिसम्बर में चीन ने एंटीमनी, गैलियम और जर्मेनियम जैसे सुपरहार्ड पदार्थों को अमेरिका भेजने पर प्रतिबंध लगा दिया, ताकि अमेरिका को उनका लाभ न मिल सके। इनके बिना अत्याधुनिक चिप और मशीनें नहीं बनाई जा सकतीं। अस्सी के दशक में ही चीन ने तय कर लिया था कि वह विदेशी पूंजी और उद्योग के लिए अपने दरवाजे तभी खोलेगा, जब उसे ठोस फायदा (तकनीक और विज्ञान हासिल करने के सौदे के रूप में) होगा।

जबकि भारत अभी तक राफेल बनाने वाली फ्रांसीसी कम्पनी से इस विमान का सोर्स कोड हासिल नहीं कर पाया है। चीन ने अपने निजी क्षेत्र को नए आविष्कारों के लिए प्रोत्साहित किया और निर्यात से मिलने वाले अतिरिक्त मुनाफे को इंफ्रास्ट्रक्चर में लगाया। इस तरह उसने उच्च, मध्यम और निचले स्तर के कारखाना-निर्माण में क्रांति कर डाली। चीन किसी को पसंद हो या न पसंद हो, उसके माल के बिना किसी का काम नहीं चलने वाला है।

भारत की चीन से नाराजगी जायज है। दुनिया के मंच पर भारत को चीन से भिड़ना होगा। लेकिन अपनी शिक्षा-व्यवस्था का हुलिया दुरुस्त करने, पश्चिम से सौदा करने के मामले में अपने हित का ध्यान रखने और निजी क्षेत्र को रिसर्च-डिवलेपमेंट में लगाने के मामले में उसे चीन से सीखना होगा। यह एक दूरगामी प्रोजेक्ट है। चीन की मौजूदा सफलता पिछले पचास साल की कोशिशों का संचित परिणाम है। भारत को भी अपनी बड़ी आबादी को चीन की तरह लाभ में बदलना होगा।

  • भारत की चीन से नाराजगी जायज है। लेकिन अपनी शिक्षा-व्यवस्था का हुलिया दुरुस्त करने, पश्चिम से सौदा करने के मामले में अपने हित का ध्यान रखने और निजी क्षेत्र को रिसर्च- डिवलेपमेंट में लगाने के मामले में उससे सीखना होगा।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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