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52 मिनट पहले
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संजय कुमार, प्रोफेसर व राजनीतिक टिप्पणीकार
बिहार में एनडीए के प्रमुख सहयोगी राष्ट्रीय लोक जनता दल के नेता उपेंद्र कुशवाह ने कुछ दिन पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को सलाह दी कि अब उन्हें जदयू की बागडोर छोड़ देनी चाहिए। उन्होंने कहा कि लंबे समय तक सत्ता और पार्टी, दोनों की कमान संभाले रखना उनके लिए व्यावहारिक नहीं होगा।
हालांकि कुशवाह ने स्पष्ट शब्दों में नीतीश के बेटे निशांत कुमार का नाम उनके उत्तराधिकारी के रूप में तो नहीं लिया, लेकिन उन्हें एक ‘नई उम्मीद’ जरूर बताया। यह पूछे जाने पर कि क्या नीतीश ही एनडीए की ओर से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे, भाजपा नेता हमेशा इस सवाल से बचते नजर आते हैं।
हालांकि उनकी यह राय कायम मालूम होती है कि एनडीए नीतीश के नेतृत्व में ही चुनाव में उतरेगी। एनडीए की अन्य सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी के नेता ने भी हाल ही में कहा कि वे भी चाहते हैं कि चुनाव में एनडीए का नेतृत्व एक मजबूत नेता के हाथ में हो।
यह बताता है कि नीतीश के नेतृत्व को लेकर एनडीए सहयोगियों में एक बेचैनी-सी है। ग्राउंड रिपोर्ट्स और सर्वे भी इस ओर इशारा कर रहे हैं कि नीतीश की लोकप्रियता घट रही है। तो क्या बिहार में एनडीए धीरे-धीरे अपना आधार खो रहा है और महागठबंधन की पकड़ मजबूत हो रही है?
इंडिया गठबंधन का ‘भारत बंद’ भले ही कई राज्यों में सफल नहीं हो पाया हो, लेकिन बिहार में इसका असर अधिक दिखा। ‘बिहार बंद’ और चक्काजाम तत्काल व्यापक प्रदर्शन में बदल गया। सड़कें जाम की गईं, टायर जलाकर प्रदर्शन हुए। सरकार की श्रम नीति के विरोध में शुरू हुआ प्रदर्शन एक तीक्ष्ण राजनीतिक औजार बन गया।
राहुल गांधी और तेजस्वी यादव की अगुआई में महागठबंधन ने चुनावी पारदर्शिता और मतदाता सूची के विशेष पुनरीक्षण के मुद्दे पर तीखे हमले किए। चूंकि कांग्रेस और राजद के कार्यकर्ता सड़कों पर थे, इसलिएबिहार बंद प्रभावी रहा। हमें नहीं भूलना चाहिए कि 2020 के बिहार चुनाव में भले ही एनडीए ने सरकार बनाई हो, लेकिन महागठबंधन वोट शेयर और सीट, दोनों के मामले में मामूली ही पीछे था।
एनडीए के दोनों साझेदार, भाजपा और जदयू के पास एक ताकतवर संगठनात्मक नेटवर्क है। उन्हें हिंदुओं के उच्च तबके और गैर-यादव ओबीसी वोटों पर भरोसा है। महिलाओं में भी गठबंधन की गहरी पैठ है। सरकारी नौकरियों में महिलाओं को 35 प्रतिशत आरक्षण की नीतीश की घोषणा ने इसे और बढ़ाया है।
दशकों से नियमित बिजली आपूर्ति, सड़क निर्माण, शराबबंदी और समाज कल्याण की योजनाओं के दम पर एनडीए खुद को सरकार के लिए एक उपयुक्त गठबंधन के तौर पर प्रस्तुत करता है। लेकिन राज्य स्तर पर गठबंधन के पास नेतृत्व का संकट है।
न केवल नीतीश की लोकप्रियता में कमी दिख रही है, बल्कि उनके गठबंधन सहयोगी भी सवाल उठाने लगे हैं। कानून-व्यवस्था बदतर हो रही है। हाल ही में हुई कई हत्याओं से भी गठबंधन की छवि को नुकसान पहुंचा है। एनडीए के सहयोगियों को ध्यान रखना होगा कि भले ही उन्होंने 2020 के चुनाव के बाद सरकार बना ली हो, लेकिन वोटों के बहुत कम अंतर से ऐसा संभव हो सका था। एक भी गलती राह में रोड़ा बन सकती है।
दूसरी ओर, महागठबंधन में राजद और कांग्रेस का भरोसा अल्पसंख्यक और ओबीसी, खासतौर पर मुस्लिम और यादव वोट बैंक पर टिका है। तेजस्वी तेजी से अपनी पकड़ मजबूत कर मुख्यमंत्री पद के लोकप्रिय उम्मीदवार के तौर पर उभर रहे हैं।
बेरोजगारी, महंगाई और पलायन जैसे बुनियादी मुद्दों पर उनकी अपील गरीब तबके में कारगर असर करती दिख रही है। फिर भी महागठबंधन के सहयोगी दलों के बीच भले ही सीटों को लेकर समझौता हो जाए, इस साझेदारी की ताकत असंतुलित और बिखरी हुई रहेगी।
कांग्रेस को इसकी कमजोर कड़ी माना जा रहा है, क्योंकि वह अपनी मौजूदा चुनावी हैसियत से अधिक सीटें मांग रही है। पिछले चुनाव में वह 70 में से महज 19 सीटें ही जीत पाई थी। लालू प्रसाद यादव के शासन के दौरान बिहार पर लगा ‘जंगलराज’ का ठप्पा अभी भी राजद को ढोना पड़ रहा है। खासकर, बुजुर्ग वोटरों के दिमाग में पुरानी छवि अभी धुंधली नहीं हुई है।
प्रशांत किशोर की जन स्वराज पार्टी भले ही बिहार में किसी दिग्गज की तरह स्थापित नहीं हुई हो, लेकिन इसने खासतौर पर युवा और शहरी वोटरों का ध्यान खींचा है। प्रशांत किशोर की स्वच्छ छवि, जात-पांत की राजनीति से दूरी और ‘गवर्नेंस-फर्स्ट’ की नीति पर जोर उनकी पार्टी को इस चुनाव में एक नई शुरुआत देता दिख रहा है। चुनाव में महज तीन माह शेष हैं, इसलिए हर दल, हर गठबंधन अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने के लिए तैयार है।
नीतीश कुमार के नेतृत्व को लेकर एनडीए सहयोगियों में एक बेचैनी-सी है। उनकी लोकप्रियता भी घटती बताई जा रही है। तो क्या बिहार में एनडीए धीरे-धीरे आधार खो रहा है और महागठबंधन की पकड़ मजबूत हो रही है? (ये लेखक के अपने विचार हैं)