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Sunday, 27 July 2025
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Abhay Kumar Dubey’s column- Trump-Musk dispute also changed the leader-capitalist equation | अभय कुमार दुबे का कॉलम: ट्रम्प-मस्क विवाद से नेता- पूंजीपति समीकरण भी बदले

Abhay Kumar Dubey’s column- Trump-Musk dispute also changed the leader-capitalist equation | अभय कुमार दुबे का कॉलम: ट्रम्प-मस्क विवाद से नेता- पूंजीपति समीकरण भी बदले

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3 घंटे पहले

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अभय कुमार दुबे, अम्बेडकर विवि, दिल्ली में प्रोफेसर

संसदीय लोकतंत्र के बहुत से आलोचक इसे बूर्ज्वा या पूंजीवादी लोकतंत्र भी कहते हैं। उनकी दलील है कि इस लोकतंत्र में ऊपर से देखने पर तो चुने हुए प्रतिनिधियों की सरकार काम करते हुए दिखती है, पर दरअसल इसके संचालन की बागडोर पृष्ठभूमि में बैठे बड़े-बड़े कॉर्पोरेट घरानों के हाथ में रहती है। कॉर्पोरेट पूंजी सामने से नहीं दिखती। मंच पर खड़े होकर वोटों के लिए जनता की गोलबंदी अरबपति नहीं करते, और न ही वे संविधान की शपथ लेकर सरकार चलाते हैं।

लेकिन, अब लगने लगा है कि सैकड़ों वर्ष से चल रहा यह सिलसिला कभी भी टूट सकता है। अगर ट्रम्प और मस्क के बीच चल रहा सार्वजनिक विवाद किसी नेता और पूंजीपति के बीच का होता, तो शायद समस्या इस तरह की नहीं होती। लेकिन यह झगड़ा दो अरबपतियों के बीच का है।

ट्रम्प एक पारम्परिक नेता न होकर 5 अरब डालर के मालिक हैं, जो उन्होंने राजनीति में आने से पहले भवन-निर्माण के व्यवसाय से कमाए हैं। और मस्क की ख्याति तो दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति की है ही। अभी कुछ दिन पहले ही ये दोनों मिलकर अमेरिकी सत्ता पर काबिज थे। आज एक-दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं।

दुनिया भर के राजनेता और पूंजीपति इस जोड़ी को तब से परख रहे हैं, जब से उन्होंने जुगलबंदी शुरू की थी। जैसे ही मस्क ने ट्रम्प का खुलकर प्रचार शुरू किया और उनकी मुहिम में 25 करोड़ डालर का अनुदान दिया, वैसे ही स्पष्ट हो गया कि अगर ट्रम्प दूसरी बार जीते तो लोकतंत्र के एक नए मॉडल का प्रयोग शुरू हो जाएगा।

अगर यह प्रयोग सफल रहा तो पहली बार साबित हो जाएगा कि राजनेताओं के जरिए सत्ता का लाभ उठाने वाला पूंजीपति अगर चाहे तो खुद भी सत्ता का प्रत्यक्ष मालिक बन सकता है। अकेले न भी सही, तो दो-तीन महत्वाकांक्षी पूंजीपति लोकतांत्रिक तौर-तरीकों का इस्तेमाल करके योजनाबद्ध तरीके से मुहिम चला कर कुर्सी हासिल कर ही सकते हैं।

ओटीटी पर प्रदर्शित लोकप्रिय अमेरिकी सीरीज “बिलियंस’ के दर्शकों को उसका वह पात्र याद ही होगा, जो अपनी धनशक्ति के दम पर राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनते-बनते रह गयाथा। वह काल्पनिक पात्र जो नहीं कर पाया वह ट्रम्प और मस्क ने मिलकर कर दिखाया। इसीलिए उनके इस झगड़े से दुनिया के बड़े-बड़े कॉर्पोरेट चीफ परेशान हैं। शायद वे इस मॉडल को इतनी जल्दी खत्म होते नहीं देखना चाहते।

बहरहाल, मामला इतना सरल नहीं है। ट्रम्प-मस्क मॉडल के पीछे लोकतांत्रिक व्यवस्था की एक खास तरह की समझ काम कर रही है। यह मॉडल लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के तहत पनपने वाले सामाजिक और व्यक्तिगत अस्तित्व को आर्थिक प्रक्रिया में घटाने पर टिका है।

ट्रम्प मानते हैं कि अगर वे डॉलर बचाकर अमेरिकी करदाता द्वारा किए गए टैक्स भुगतान का बड़ा हिस्सा वापिस कर पाए और अंतत: इस प्रक्रिया को चरम पर पहुंचाकर अमेरिका से इनकम टैक्स ही खत्म करने में कामयाब हो गए तो न केवल अमेरिका फिर से ग्रेट हो जाएगा, बल्कि स्वयं वे हमेशा-हमेशा के लिए वोटरों के चहेते बन जाएंगे।

मस्क को वे अपनी इस महत्वाकांक्षा पूरी करने के एक सक्षम औजार की तरह देखते थे। लेकिन मस्क के भीतर भी महत्वाकांक्षाएं हैं। वे धन के साथ स्पेस-रोबोटिक्स-संचार टेक्नॉलॉजी को जोड़कर तैयार किए फॉर्मूले के दम पर जनता का दिल जीतना चाहते हैं। उन्हें अपनी अलग पार्टी बना कर राजनीतिक दावेदारी करने से भी परहेज नहीं है।

कहना न होगा कि भारत का पूंजीपति वर्ग अमेरिका से अलग तरह का है। वह आज भी पृष्ठभूमि में रह कर सरकारी नीतियों का लाभ उठाने में यकीन करता है। इसीलिए आज तक शायद ही किसी पूंजीपति को सर्वोच्च नेता या सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ बोलते देखा गया है। भारत के कॉर्पोरेट घरानों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा राज्यसभा की सदस्यता हासिल करने तक ही सीमित रही है।

ट्रम्प-मस्क मॉडल की सफलता या विफलता का असर दुनिया के दूसरे हिस्सों के महत्वाकांक्षी पूंजीपतियों के लिए एक टेम्प्लेट जरूर मुहैया कराता है। यह राजनीति पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण करने के बजाय उसे हड़पने का मॉडल है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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Anuragbagde69@gmail.com

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