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- Dr. Aruna Sharma’s Column If Poverty Is Decreasing Then It Should Be Reflected In The Employment Figures
6 घंटे पहले
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डॉ. अरुणा शर्मा प्रैक्टिशनर डेवलपमेंट इकोनॉमिस्ट और इस्पात मंत्रालय की पूर्व सचिव
दुनिया में किसी देश की पोजिशन उसकी ताकत से ही तय होती है। बेशक, भारत दुनिया में पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। 6.2% की वृद्धि दर और 4.19 ट्रिलियन डॉलर के मौजूदा आकार के साथ हमारी अर्थव्यवस्था अगले दशक में तीसरी सबसे बड़ी इकोनॉमी बनने की ओर अग्रसर है। लेकिन जब हम वास्तविक तौर पर जीडीपी (187.95 लाख करोड़) की गणना करते हैं तो पाते हैं इसमें बड़ा योगदान हमारी आबादी का है।
यह मैन्युफैक्चरिंग, रिसर्च और प्रति व्यक्ति आय के मामले में आगे बढ़ती नहीं दिखती। इसके लिए हमें विभिन्न क्षेत्रों में खर्च को बढ़ाना होगा। 6.2% की वृद्धि दर से ऐसा कर पाना संभव नहीं। यह दो अंकों में होनी चाहिए, जैसे चीन ने अपने जनसांख्यिकी विकास के वर्षों में 10 प्रतिशत की दर से विकास किया था।
हमें प्रति व्यक्ति जीडीपी को बढ़ाने के लिए अभी बहुत अधिक प्रयास करने होंगे, क्योंकि यह अभी नाइजीरिया से भी कम है। हमारी अर्थव्यवस्था में आज भी सबसे बड़ा योगदान कृषि क्षेत्र का है। एमएसएमई का योगदान 13 से 17 प्रतिशत के बीच बना हुआ है, जबकि लक्ष्य 25 प्रतिशत का था।
समावेशी अर्थव्यवस्था के लिए यह 50 प्रतिशत होना चाहिए। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) में उतार-चढ़ाव हैं। स्टॉक मार्केट में ज्यादातर एफडीआई पूंजीगत निवेश के बजाय बढ़ते बाजार का लाभ उठाने के लिए दिख रहा है। निजी क्षेत्र का पूंजीगत निवेश भी नीचे गिर रहा है।
वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत को आज भी एक उपभोक्ता के तौर पर देखा जाता है। मोबाइल निर्माण में हमारी सफलता भी सिर्फ असेंबलिंग तक सीमित है। कृषि उत्पादन भी अंतरराष्ट्रीय मानकों की तुलना में एक तिहाई है। मांग अब भी कोविड से पहले के स्तर पर नहीं पहुंच पाई है।
इधर, विश्व में पैदा हो रही प्रतिकूल परिस्थितियां भी हमारे समावेशी विकास में बाधा डालेंगी। देश में गरीबी कम होने का दावा तो किया जा रहा है। लेकिन इसमें नीति आयोग ने निर्धारित राशि के स्थान पर बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई) को आधार बनाया है, जिसमें स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन स्तर जैसे फैक्टर्स शामिल हैं।
इसकी गणना भी प्रभाव का वास्तविक आकलन करने के बजाय सरकारी योजनाओं के आधार पर की जाती है। स्थिर और गिरते वेतन, घरों और खेतों में काम कर रही महिलाओं को डेटा में शामिल करने से आंकड़े तो बढ़ जाएंगे, लेकिन इससे अतिरिक्त नौकरियां नहीं पैदा होंगी। देश में 65% युवा 8% की बेरोजगारी दर झेल रहे हैं और बाजार में उपलब्ध रोजगार तथा कौशल के बीच बिल्कुल तालमेल नहीं है।
हमें युवा आबादी होने का जो लाभ हासिल था, वह एआई और ऑटोमेशन के दौर में घट रहा है। ऐसे में युवाओं में ऑटोमेशन के लिए स्किल्स विकसित करना बहुत जरूरी है। नीति निर्माण में लेटलतीफी के चलते इनोवेशन हतोत्साहित हो रहे हैं।
यदि गरीबी घट रही है तो वह रोजगार के आंकड़ों में दिखनी चाहिए, लेकिन ऐसा है नहीं। शोध के क्षेत्र में बेहतर संभावनाओं वाले और प्रशिक्षित इंजीनियरों के बावजूद भारत में इनोवेशन को मुक्त-हस्त से प्रोत्साहित नहीं किया जाता।
व्यापार में हम पिछड़े हैं और हमारा उपभोग बुनियादी चीजों में भी आयात पर निर्भर होता जा रहा है। यह सब हमें कंस्ट्रक्शन, कपड़ा, भवन निर्माण सामग्री, मदर बोर्ड आदि में बेहतर मैन्युफैक्चरिंग से वंचित कर रहा है। हमारे पास डिजिटल सैवी ऑडियंस है, फिन टेक क्षेत्र में हमारे सुधार शानदार हैं, बड़ी संख्या में इंटरनेट यूजर्स हैं।
इनके दम पर हम महज एक उपभोक्ता बनने के बजाय बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं। लेकिन इस सब के लिए मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देना होगा। हमें टिकाऊ रोजगार और स्थिर नीतियां बनानी होंगी, इसी से पूंजीगत निवेश बढ़ेगा। नहीं तो हम अपनी आवाज बुलंद करने के बजाय दुनिया के आदेशों से ही चलते रहेंगे।
भारतीय बाजार में यह संभावना है कि हम अपने यहां बनाई 95 प्रतिशत वस्तुओं को घरेलू बाजार में ही खपा सकते हैं। लेकिन हमें सेवा क्षेत्र के बजाय मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में नौकरियां पैदा करने पर ध्यान देने की जरूरत है। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)