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- N. Raghuraman’s Column Learning New Things Is Always Very Energising
4 घंटे पहले
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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु
‘कोन्निचिवा, वताशी वा निशेविता देसु’ 13 साल की उम्र में जब हमारी बेटी ने अपनी पहली जापानी क्लास से लौटकर ये लाइन बोली तो मेरी पत्नी और मैं अवाक् होकर एक दूसरे की ओर देखकर पूछने लगे कि ‘ये क्या है।’ मेरी बेटी ने हमारे हाथ थामे और बोली ‘कोन्निचिवा’ का मतलब है ‘शुभ दिन’, ‘वताशी वा’ का मतलब है ‘मैं हूं या मेरा नाम’ और फिर आप तो मेरा नाम जानते ही हो।
और ‘देसु’ का अर्थ ‘है’। और उसके बाद कई दिनों तक हमने अपनी सामान्य बातचीत में कई जापानी शब्द सुने। हमारा उत्साह इतना बढ़ गया कि कई बार वो हमें चॉपस्टिक से पॉपकॉर्न खाना सिखाती थी! हंसिए नहीं। इसमें एक विज्ञान है, जो मैं आपको बाद में बताउंगा।
और भरोसा कीजिए कि परिवार के तौर पर जब लोग हमें ऐसी मजेदार गतिविधि करते हुए देखते तो वो सोचते कि हम पागल हो गए हैं। यहां तक कि उस वक्त मैं खुद भी ऐसा सोचता था। जब भी हम चाइनीज रेस्तरां में जाते तो पूरा परिवार बहुत सहजता से चॉपस्टिक से खाना खाता और पूरा रेस्तरां हमें ऐसे देखता जैसे हम किसी प्रदर्शनी की वस्तु हैं। यहां तक कि कुछ लोग बच्चों को हमारे पास यह सीखने के लिए भी भेजते कि चॉपस्टिक को कैसे पकड़ा जाता है और मैं उन्हें सिखाता था। इस प्रकार हमारा बाहर खाना एक अलग अनुभव बन गया था।
अब चॉपस्टिक से पॉपकॉर्न खाने के पीछे के विज्ञान पर आते हैं। हाल ही मुझे समझ आया कि एक अध्ययन है, जो एकाग्रता बढ़ाने और भोजन पर अधिक ध्यान देकर उसका आनंद बढ़ाने के लिए चॉपस्टिक से पॉपकॉर्न खाने की सलाह देता है।
खाने का यह ‘अपारंपरिक’ तरीका आपको एक नया अनुभव देता है, भले ही आप कुछ जाना-पहचाना ही खा रहे हों। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन में यह पाया गया कि चॉपस्टिक से पॉपकॉर्न खाने वाले लोगों ने अधिक आनंद की बात कही, बजाय उनके जिन्होंने सामान्य तरीके से खाया। जबकि दोनों समूहों को धीरे-धीरे खाने के लिए कहा गया था।
यह सब मुझे तब याद आया जब मैंने पुणे के पास बीड जिले में छोटे से गांव उमरद खालसा के 11 वर्षीय राहुल जयदेव के बारे में सुना। जब वह कहता है, ‘इच विल नैच ड्यूशलैंड रेजेन’ (मैं जर्मनी जाना चाहता हूं), तो लोग उसे देखकर आश्चर्य करते हैं।
हर शनिवार को होने वाली जर्मन की कक्षा में लोग अचानक एक स्वर में बोलते हैं ‘इच लाइबे ड्यूश’ (हमें जर्मन पसंद है)। स्थानीय जिला परिषद स्कूल में उनकी जर्मन कक्षाएं अब साप्ताहिक कामकाज का हिस्सा हैं। यह पहल तब शुरू हुई, जब जर्मनी में काम कर चुके केदार जाधव ने नवंबर 2022 में विद्यार्थियों को ऑनलाइन पढ़ाना शुरू किया।
पुणे के पास सिंधुदुर्ग का एक और दूरस्थ गांव चौकूल है, जहां महज 30 घर हैं। इस गांव में बमुश्किल सेलफोन नेटवर्क हैं, पर यहां के बच्चे जापानी बोलते हैं। जब यहां के शिक्षक जावेद तंबोली ने देखा कि मराठी स्कूलों में नामांकन घट रहा है, क्योंकि अभिभावक अंग्रेजी माध्यम के संस्थान चुन रहे हैं तो उन्होंने नवाचार किया।
‘जॉयफुल सैटरडे’ पहल के तहत विद्यार्थियों को जर्मन सिखाना शुरू किया। संभाजीनगर, वडोना की कक्षाओं में ना सिर्फ मराठी-अंग्रेजी, बल्कि जापानी के भी शब्द सुने जा सकते हैं। बीते दो वर्षों से शिक्षिका सुनीता लहाने पहली से पांचवीं के बच्चों को बुनियादी जापानी सिखा रही हैं।
सतारा के सूखा प्रभावित तालुका मान में बालाजी जाधव ने महाराष्ट्र का संभवत: सबसे महत्वाकांक्षी आधारभूत भाषा कार्यक्रम शुरू किया है। वह पहली से चौथी के 40 बच्चों को जापानी सिखा रहे हैं। उन्हें लगता है कि ग्रामीण छात्र भाषायी बाधाओं के कारण वैश्विक अवसरों से वंचित रह जाते हैं और वे इस परिपाटी को बदलना चाहते हैं।
फंडा यह है कि नई चीजों को समझना-सीखना, चीजों को सरल बनाना, सकारात्मक सोच, सेहतमंद खाना, सामाजिक मेलमिलाप, ध्यान, चलना-फिरना, यात्रा करना, कृतज्ञता, सूर्य का प्रकाश, प्रकृति, संगीत, नींद और अंतत: आराम बहुत सारी ऊर्जा देता है। जबकि डर, बुरी खबर, तनाव, हड़बड़ाहट, शराब, फास्ट फूड, आत्म आलोचना, जरूरत से अधिक काम, नींद की कमी, टालमटोल, सोशल नेटवर्क, नकारात्मक सोच, पुरानी बातों को सोचते रहने से ऊर्जा समाप्त होती है।