4 घंटे पहले
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नवनीत गुर्जर
बारिश हर तरफ है। जोरदार है। जबर्दस्त है। कहीं सुकून देने वाली। कहीं तबाही मचाने वाली। हल्की हो या तेज, पुल-पुलिया ताश के पत्तों की तरह बह रहे हैं। दरअसल, इस बहने-टूटने में इन पुल-पुलिया का कोई कसूर नहीं है। शरद जोशी ने लिखा है- हिंदुस्तान में नदियां हैं। नदियों के ऊपर पुल बने हैं। पुल इसलिए बने हैं ताकि नदियां उनके नीचे से निकल सकें।
अब जब बाढ़ का पानी, नदियों की धारा, पुलों के ऊपर से बहेगी तो इनका बहना-टूटना तो लाजिमी है! सो, बह रहे हैं। टूट रहे हैं। ठेकेदार, इंजीनियर या इन सबको पालने-पोसने और पल्लवित करते रहने वाली सरकारों का क्या कसूर? हो सकता है इन पुलों को बनाने के लिए अवैध रूप से निकाली गई ट्रकों बालू या रेत के मन में कोई खोट हो!
हो सकता है इन ट्रकों की अवैध आवाजाही को हरी झंडी देने के लिए जिन नाकों, चौकियों पर जो नोट बांटे गए हों, उनकी चमक फीकी रही हो! जब पूरी दुनिया और ये देश हवा के बहाव के साथ चल रहा है तो नदियों के साथ पुलों का बहना कौन-सा बड़ा अचरज है? जब बड़े-बड़े पहाड़ दरक रहे हैं। प्रकृति सहम रही है तो फिर पुलों का बहना, पुलियाओं का ढहना कौन बड़ी बात है?
खैर, इस दर्द से रूबरू होना है तो उन गांवों में जाइए, देखिए कि रोजमर्रा के अपने काम पर जाने के लिए लोग किस तरह नदी के दोनों सिरों पर रस्सी बांधकर पार उतर रहे हैं! किस तरह खेत में जाते वक्त किसान या खेत मजदूर अपने टूटे-फटे जूतों को हाथ में उठाए कीचड़- कादा रौंदते हुए काम पर जाता है!
…और वे इंजीनियर, वे ठेकेदार जिनकी वजह से ये पुल-पुलिया टूटते-बहते हैं, सड़कें जानलेवा गड्ढों में तब्दील होती है, वे चैन की बंसी बजा रहे हैं। छापों में उनके घर नोट उगल रहे हैं। इसके बावजूद भ्रष्टाचार की इस प्रक्रिया में, पैसे-रुपए खा-खाकर कच्चे पुल, पुलिया और सड़कें बनाने की इस व्यवस्था में कोई बदलाव, कोई फेर-फार नहीं होता। इस बदहाली को देखते-देखते कई आंखें बूढ़ी हो चलीं, कई बचपन बुढ़ापे में बदल चुके, लेकिन बेमुरौव्वत सरकारों, ठेकेदारों का गठजोड़ खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है।
आम आदमी है कि भ्रष्टाचार की इस व्यवस्था को कहीं नदियों में बहाने की, कहीं बहती नहरों में फेंकने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। शायद वह भी इस व्यवस्था का आदी हो चुका है। उसे लगता है- व्यवस्था ऐसी ही होती है। ऐसे ही चलती है।
व्यवस्था है कि सुधरने का नाम नहीं लेती। सरकारें बदलती हैं लेकिन सुधार न के बराबर। अफसर वे ही, बाबू वे ही, नेता वे ही। कैसे बदलेगी व्यवस्था? कैसे आएगा सुधार? खैर, व्यवस्था के इस रोने को कीचड़ में डालते हैं और वहां चलते हैं जहां बारिश के इस मौसम में भी चुनावी गर्मी अपने चरम की ओर जाने को बेताब है। फिलहाल चुनावी गर्मी किसी पार्टी या दलगत राजनीति के कारण नहीं है बल्कि चुनाव आयोग के नए कायदों के कारण है। विपक्षी पार्टियां कह रही हैं कि यही नियम लागू रहे तो करोड़ों लोग वोट देने से वंचित रह जाएंगे। इनका कहना है कि मतदाता सूची बनाने के लिए जो प्रमाण मांगे जा रहे हैं, वे कई लोगों के पास नहीं हैं।
राजनीतिक दलों का तर्क है कि जब हर जगह आप आधार कार्ड को ही पहचान मान रहे हैं तो उसी को वोटर का प्रमाण मानने में क्या दिक्कत है? जबकि चुनाव आयोग का कहना है कि आधार कार्ड केवल आपकी पहचान का प्रमाण है। नागरिकता या जन्म तारीख या जन्म-स्थान का प्रमाण नहीं।
विवाद जारी है। चुनाव आयोग कभी कहता है कि कोई भी प्रमाण चलेगा। फिर कभी कहता है कि जो ग्यारह प्रमाण मांगे गए हैं, उनमें से ही कोई एक देना होगा। कन्फ्यूजन ही कन्फ्यूजन है। कोई सिरा फिलहाल तो समझ में नहीं ही आ रहा है। वैसे भी चुनाव अक्टूबर-नवम्बर में होने वाले हैं। ज्यादा दिन नहीं बचे हैं। कैसे यह सब काम पूरा होगा, कौन करेगा, किस तरह करेगा, कुछ भी स्पष्ट नहीं है।
दूसरी तरफ चिराग पासवान ताल ठोक रहे हैं। उन्होंने केंद्रीय मंत्री रहते हुए विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है। हो सकता है सफलता मिलने पर मुख्यमंत्री पद की होड़ में भी आ जाएं। उद्देश्य तो यही होगा। बाकी सबकुछ चुनाव परिणाम के हाथ में रहेगा। जिसकी जितनी ज्यादा सीटें आएंगी, दावा उसका ही ज्यादा मजबूत होगा। एक नीतीश कुमार ही हैं, जो कम सीटें लाकर भी किंग बनते रहे हैं। हो सकता है- आगे भी ऐसे ही बने रहें!
पुलों के टूटने में ठेकेदार इंजीनियर का क्या कसूर… पुल टूट रहे हैं। ठेकेदार, इंजीनियर का क्या कसूर? हो सकता है अवैध रूप से निकाली गई ट्रकों बालू या रेत के मन में कोई खोट हो! हो सकता है ट्रकों की आवाजाही के लिए नाकों, चौकियों पर जो नोट बांटे हों, उनकी चमक फीकी हो!