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- Rajdeep Sardesai’s Column Why Is There Unity Abroad But A Scene Of Differences At Home?
2 दिन पहले
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राजदीप सरदेसाई वरिष्ठ पत्रकार
असदुद्दीन ओवैसी को ‘राष्ट्रवादी’ होने का प्रमाण-पत्र देने के लिए पाकिस्तान के खिलाफ 87 घंटे लंबे सैन्य-अभियान की जरूरत पड़ी। इससे पहले कई सालों से उनकी राजनीति को ‘राष्ट्र-विरोधी’ बताकर बदनाम किया जा रहा था। अपनी अलग धार्मिक पहचान को शेरवानी की तरह पहनने के चलते वे उन लोगों की आंख में खटकते थे, जिनकी राजनीति भारतीय मुसलमानों के ‘अन्यीकरण’ के इर्द-गिर्द घूमती है।
लेकिन आज वही ओवैसी वैश्विक मंचों पर पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकवाद पर भारत के स्टैंड को आक्रामक तरीके से उठाने के लिए ‘देशभक्त’ के रूप में सम्मानित हो रहे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि हैदराबाद के इस मुखर-सांसद की राजनीति में कोई बदलाव नहीं आया है। उन्होंने पहले भी कई मौकों पर पाकिस्तान और उसके ‘दो राष्ट्र’ के सिद्धांत का विरोध किया है।पश्चिम बंगाल में गृह मंत्री शाह की हालिया टिप्पणियों को भी देखें, जिसमें उन्होंने ममता सरकार पर ऑपरेशन सिंदूर को लेकर ‘वोट बैंक की राजनीति’ करने का आरोप लगाया।
जबकि अधिकांश विपक्षी दलों की तरह टीएमसी भी पाकिस्तान से युद्ध में सरकार का समर्थन करती रही है। जब शाह कोलकाता में भाजपा कार्यकर्ताओं को संबोधित कर रहे थे, तब टीएमसी नेता अभिषेक बनर्जी पूर्वी एशिया में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के रूप में पाकिस्तान के मिलिट्री-स्टेट के खिलाफ प्रखर भाषण दे रहे थे। लेकिन बंगाल में चुनाव होने में एक साल से भी कम समय है और यह भाषण चुनावी बिगुल बजाने के लिए था। भारत की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस की बदहाली पर भी नजर डालें।
पहलगाम हमले के तुरंत बाद पार्टी ने घोषणा की थी कि वह राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए मोदी सरकार द्वारा उठाए गए किसी भी कदम का समर्थन करेगी। और इसके बावजूद जब शशि थरूर ऑपरेशन सिंदूर का समर्थन करते हैं तो केरल के स्थानीय कांग्रेस नेता उन्हें भाजपा के ‘सुपर-प्रवक्ता’ के रूप में ब्रांड कर देते हैं। वाशिंगटन डीसी में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करते हुए थरूर ने इस आरोप का भी खंडन किया कि ट्रम्प ने भारत को युद्ध विराम के लिए सहमत होने पर मजबूर किया था।
जबकि भोपाल में पार्टी की एक रैली में राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री पर व्हाइट हाउस के सामने ‘सरेंडर’ करने का आरोप लगा दिया। इस सबसे कांग्रेस की आतंरिक विचार-प्रक्रिया में निहित भ्रम ही खुलकर उजागर हुआ है। ऐसे अंतर्विरोधों से भरे राजनीतिक माहौल को कैसे समझें, जो विदेशी धरती पर तो भारत के लिए मजबूती से लड़ रहा है, लेकिन घर में एक-दूसरे पर बिना किसी सामंजस्य या शिष्टाचार के हमले करता है? ऐसी संस्थागत कमजोरी से लोकतांत्रिक जवाबदेही सुनिश्चित करना मुश्किल होता जा रहा है।
संसद की संस्था का ही उदाहरण लें, जिसे पिछले एक दशक में सत्ताधारी पार्टी ने नोटिस-बोर्ड तक सीमित कर दिया है। सरकार के कानून निर्माताओं ने विपक्ष के साथ महत्वपूर्ण मुद्दों पर सार्थक बातचीत करने की बहुत कम या बिल्कुल भी कोशिश नहीं की है। विधेयकों को जबरन पास कर किया जाता है, चर्चाओं को बीच में ही रोक दिया जाता है, विवादास्पद मुद्दों को खारिज कर दिया जाता है। जब चीनी घुसपैठ पर बहस की मांग की जाती है, तो उसे तुरंत निरस्त कर दिया जाता है।
जब ऑपरेशन सिंदूर पर चर्चा के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाई जाती है, तो प्रधानमंत्री उसमें शामिल ही नहीं होते। जब पहलगाम के बाद विशेष सत्र की मांग की जाती है, तो सरकार इस मांग को नजरअंदाज कर देती है। इन तमाम बातों से लोकतंत्र ही कमजोर होता है।इसमें मीडिया की भूमिका पर भी नजर रखी जानी चाहिए। जब मीडिया सरकार का प्रवक्ता बन जाता है, तो लोक-विमर्श समानतापूर्ण नहीं रह जाता।
ऑपरेशन सिंदूर पर भी सरकार से असुविधाजनक सवाल उठाने की बहुत कम या बिलकुल भी कोशिश नहीं की गई, जबकि नियमित रूप से राज्यसत्ता के प्रचार को बढ़ावा दिया गया। क्या यह आश्चर्य की बात है कि सीडीएस की स्वीकारोक्ति भी सिंगापुर में विदेशी मीडिया नेटवर्क के समक्ष थी, न कि घरेलू दर्शकों के सामने? आखिर जनता को जानने का अधिकार है, गलत सूचनाओं की अंधेरी सुरंग में रखे जाने का नहीं।
पुनश्च : सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल में शामिल एक विपक्षी सांसद ने मुझसे चर्चा में बताया कि उन्हें अपनी साथी भाजपा सांसद ‘अच्छी व्यक्ति’ लगीं। उन्होंने कहा, ‘संसद में तो वे द्वेषपूर्ण व्यवहार करती हैं, लेकिन फ्लाइट में उनसे बातें करके काफी अच्छा लगा!’ शायद इस तरह की कुछ और सर्वदलीय-मुलाकातें पक्ष-विपक्ष के बीच जमी बर्फ को पिघलाने में मदद कर सकती हैं!
- ऐसे अंतर्विरोधों से भरे राजनीतिक माहौल को हम कैसे समझें, जो विदेशी धरती पर तो भारत के हितों के लिए मजबूती से लड़ाई लड़ रहा है, लेकिन अपने ही घर में एक-दूसरे पर बिना किसी सामंजस्य या शिष्टाचार के हमले करता है?
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)