5 घंटे पहले
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शीला भट्ट वरिष्ठ पत्रकार
भारतीय शैली के लोकतंत्र में संसद पर नियंत्रण ही सरकार को चलाता या डगमगाता है। हाल के दिनों में राज्यसभा के सभापति के रूप में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने सरकार के सामने अपना प्रभाव बढ़ाना शुरू कर दिया था।
सत्तारूढ़ दल के साथ सामंजस्य बिठाने के बजाय वे मानने लगे थे कि कानून की किताब का हवाला देकर दबदबा कायम कर सकते हैं। सत्ता पक्ष उनसे असहज होता जा रहा था। यहां तक कि जब धनखड़ विपक्षी दलों के नेताओं से मिलते थे, तब भी सरकार के प्रति अपनी नाराजगी काफी खुलकर व्यक्त करते थे। ये खबरें सत्ताधारी दल तक पहुंच गई थीं।
कुल-मिलाकर यह राज्यसभा को नियंत्रित करने की शक्ति का मामला था। सभापति के रूप में धनखड़ पूर्ण नियंत्रण चाहते थे और उनमें विद्रोही प्रवृत्ति बढ़ती जा रही थी। सर्वोच्च संवैधानिक पदों की परम्परा के विरुद्ध जाते हुए उन्होंने राजनीतिक पक्षधरता दिखाई थी।
किसान आंदोलन के राजनीतिक विमर्श में शामिल होना तो विशुद्ध राजनीति में लिप्त होने का स्पष्ट उदाहरण था। एक सार्वजनिक कार्यक्रम में उन्होंने किसानों के मुद्दे से निपटने में सरकार की लापरवाही को दोषी ठहराया।
इससे कार्यक्रम में मौजूद कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान सहित सभी श्रोता स्तब्ध रह गए थे। न्यायपालिका पर संसद की सर्वोच्चता सम्बंधी उनके विचारों की टाइमिंग भी सरकार के लिए गलत थी। इसने न्यायपालिका को अपने तरीके से हैंडल करने की सरकार की योजनाओं में अड़ंगा डाल दिया था।
सत्तारूढ़ दल ने देखा कि दिसंबर 2024 में उपराष्ट्रपति के प्रति अविश्वास व्यक्त करके विपक्ष ने जो दबाव बनाया, वो कारगर साबित हुआ था। उस समय कांग्रेस ने धनखड़ पर सरकार के प्रवक्ता होने का आरोप लगाया था। उपसभापति हरिवंश के प्रयास से प्रस्तावित अविश्वास प्रस्ताव भले विफल हो गया हो, लेकिन उसके बाद से धनखड़ ने अपना रवैया बदला और संतुलन बदलने की कोशिश की।
इससे भाजपा सांसदों में भ्रम की स्थिति बनी। कई ऐसी घटनाएं हुईं, जिन्होंने उनके और भाजपा के शीर्ष नेताओं के बीच की दूरी को बढ़ाया। कई मामलों में वे सरकार से एकमत नहीं थे। उन्होंने उस धारा के तहत ऑपरेशन सिंदूर पर बहस की अनुमति दी, जिससे इस संवेदनशील मुद्दे का दायरा बढ़ जाता।
आम तौर पर रक्षा के मामले में संसद सशस्त्र बलों के हितों की रक्षा करती है, उन पर स्वतंत्र बहस की अनुमति नहीं देती। कोई भी बहुमत-प्राप्त सरकार तब निष्क्रिय नहीं रह सकती, जब संसद का सदन उसे असुरक्षित बना रहा हो। धनखड़ को भी इसका अहसास हुआ। वे खुद को अलग-थलग महसूस कर रहे थे। उनके इस्तीफे के बाद कई किस्से सामने आ रहे हैं, जो बताते हैं कि दबाव लंबे समय से बन रहा था।
इस्तीफा किस वजह से हुआ? याद रहे कि इतना बड़ा पद कोई भी छोटे-मोटे कारणों से नहीं छोड़ता है। धनखड़ ने सदन शुरू होते ही घोषणा कर दी थी कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश यशवंत वर्मा को हटाने के लिए विपक्ष के सदस्यों का प्रस्ताव उन्हें मिला है और उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया है।
यह भाजपा के लिए बड़ा झटका था। राज्यसभा में 63 विपक्षी सांसदों द्वारा हस्ताक्षरित प्रस्ताव को धनखड़ द्वारा स्वीकृत करने से सरकार ने लोकसभा में इसी तरह का प्रस्ताव पेश करने का मौका गंवा दिया। इस पर विचार के लिए लोकसभा सदस्यों की समिति बनानी थी। धनखड़ जानते थे कि सरकार लोकसभा में पहले ही नोटिस जारी कर चुकी है। उन्होंने सरकार को मात दे दी। वे महाभियोग की कार्यवाही को नियंत्रित करना चाहते थे।
धनखड़ का इस्तीफा भाजपा के लिए शुभ संकेत नहीं है। उपराष्ट्रपति जैसे महत्वपूर्ण पद के लिए उन्हें चुनने के बाद अगर सरकार उनके साथ कामकाज में सामंजस्य नहीं बिठा पाई है, तो यह भाजपा के जजमेंट की विफलता को बताता है। अब भाजपा आशा ही कर सकती है कि धनखड़ सत्यपाल मलिक की राह पर आगे नहीं बढ़ेंगे!
भाजपा एक कमजोर पार्टी नहीं कहलाना चाहती थी। पिछले एक साल से प्रधानमंत्री केंद्र में स्थिरता का आभास देने के लिए हरसम्भव प्रयास कर रहे हैं, लेकिन धनखड़ राज्यसभा में विधायी कार्यों को नियंत्रित करना चाहते थे। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)