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- Virag Gupta’s Column All Parties Need A Healthy Debate On Citizenship
5 घंटे पहले
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विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट के वकील
बिहार में वोटर लिस्ट पर हंगामे के बाद चंद्रबाबू नायडू ने आंध्र प्रदेश और दूसरे राज्यों में चुनावों से काफी पहले वैज्ञानिक तरीके से सत्यापन प्रक्रिया पूरी करने की मांग की है। दूसरी ओर हिमंत बिस्वा सरमा ने एनआरसी का राग छेड़कर संवैधानिक मामले में सियासी पेचीदगी बढ़ा दी है।
पश्चिम में नागरिकता के कठोर नियम हैं, लेकिन भारत में नागरिकता का मसला संसदीय विफलता, सत्ता की सियासत और प्रशासनिक भ्रष्टाचार की बलि चढ़ रहा है। नागरिकता से जुड़े 6 बिंदुओं पर सभी दलों को स्वस्थ बहस की जरूरत है।
1. एनआरसी : 1951 की जनगणना के अनुसार पहला राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) बना, लेकिन उसके बाद अपडेट नहीं हो पाया। नागरिकता कानून के अनुसार 2003 में एनआरसी के संशोधनों को लागू करने की मुहिम 2019 में सुप्रीम कोर्ट के ठंडे बस्ते में चली गई। असम समझौते को लागू करने के लिए नागरिकता कानून में जोड़ी गई धारा 6-ए को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने पिछले साल वैध करार दिया। बिहार में वोटर लिस्ट का सत्यापन चुनावों के पहले कराने पर सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को नसीहत तो दी है, पर नागरिकता से जुड़े अनेक लम्बित मामलों की सुनवाई और फैसले के लिए सुप्रीम कोर्ट में कई सालों से संविधान पीठ का गठन ही नहीं हुआ है।
2. एनपीआर : जनसंख्या का कानून 1948 में बना, लेकिन राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) के लिए 2003 में जाकर नियम बने। उसके अनुसार भारत के सभी सामान्य निवासियों के लिए एनपीआर में रजिस्ट्रेशन जरूरी है। 2010 में पहला एनपीआर तैयार होने के पांच साल बाद उसे अपडेट किया गया था। लेकिन आधार कार्ड की तरह एनपीआर में विवरण होना नागरिकता का आधिकारिक सबूत नहीं है।
3. सीएए : नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को दिसम्बर 2019 में मंजूरी मिली। उसके अनुसार पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से गैर-मुस्लिम धार्मिक अल्पसंख्यक शरणार्थियों को भारत की नागरिकता मिल सकती है। उस कानून के अनुसार शरणार्थियों को नागरिकता लेने के लिए भारत में निवास के प्रमाण के तौर पर 20 तरह के दस्तावेजों में से एक और पड़ोसी देश के निवास के प्रमाण के तौर पर 9 में से एक दस्तावेज को देने की जरूरत है। सीएए और रोहिंग्या शरणार्थियों जैसे मामले सुप्रीम कोर्ट में सालों से लम्बित हैं। इसलिए वोटर लिस्ट में पहचान के बावजूद विदेशी लोगों के खिलाफ निर्वासन की कार्रवाई के लिए गृह मंत्रालय को एक्शन लेना होगा।
4. आधार : सुप्रीम कोर्ट ने अगस्त 2015 में कहा था कि आधार कार्ड के जरूरी नहीं होने के बारे में भारत सरकार बड़े पैमाने पर मीडिया में प्रचार करे। लेकिन कोर्ट के अनेक आदेशों और अंतिम फैसले को धता बताकर सरकार ने पिछले दरवाजे से आधार को जरूरी बना दिया। अभी बिहार में आधार को मान्यता देने की मांग करने वाली पार्टियां वोटर कार्ड को आधार से लिंक करने का विरोध कर रही हैं। दो साल पहले सुप्रीम कोर्ट में दिए शपथ-पत्र के अनुसार फार्म-6 बी के लिए आधार जरूरी नहीं है। इसके बावजूद चुनाव आयोग ने 66.23 करोड़ वोटरों का आधार क्रमांक एकत्रित कर लिया है। लंबी नींद से जागने के बाद सरकार ने सख्ती बढ़ाई है। लेकिन जांच के बगैर निजी एजेंसियों द्वारा जारी करोड़ों आधार अब सरकार के साथ चुनाव आयोग के गले की हड्डी बन गए हैं।
5. नागरिकता : सुप्रीम कोर्ट के पुराने फैसले के अनुसार वोटर लिस्ट की आड़ में चुनाव आयोग नागरिकता की पड़ताल नहीं कर सकता। एनआरसी और नागरिकता का मामला केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय के अधीन आता है। लेकिन अनुच्छेद-326 के अनुसार 18 से ऊपर के नागरिकों का नाम वोटर लिस्ट में शामिल करने के बारे में चुनाव आयोग को संविधान से संपूर्ण अधिकार हासिल हैं। इसीलिए आधार और ड्राइविंग लाइसेंस के लिए मंजूरी के बावजूद फर्जीवाड़े वाले राशन कार्ड की मान्यता मुश्किल है।
6. वोटर लिस्ट : बिहार में 1% वोटों के फेरबदल से सरकार का गणित बदल गया था। इसलिए भ्रष्ट तरीके से वोटर लिस्ट में गलत नाम शामिल करवाना या सही वोटरों का नाम हटाना, दोनों गलत हैं। राज्य सरकारों के स्थानीय प्रशासन की मनमर्जी और भ्रष्टाचार को सख्ती से नियंत्रित करके आयोग अपनी साख बढ़ा सकता है। स्वतंत्र, पारदर्शी और निष्पक्ष तरीके से वोटर लिस्ट का शुद्धिकरण आयोग की संवैधानिक जिम्मेदारी है।
- राज्य सरकारों के स्थानीय प्रशासन की मनमर्जी और भ्रष्टाचार को सख्ती से नियंत्रित करके आयोग अपनी साख बढ़ा सकता है। स्वतंत्र, पारदर्शी और निष्पक्ष तरीके से वोटर लिस्ट का शुद्धिकरण आयोग की संवैधानिक जिम्मेदारी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)